शास्त्रीय संगीत- भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है । शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्जूजिक’ भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन ध्वनि-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं । इसमें महत्व ध्वनि का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है। इतिहास भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र और उससे पहले सामवेद के गायन तक जाती है। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है. इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र के बाद मतङ्ग मुनि की बृहद्देशी, और शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है। संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था मगर मूल तत्व एक ही रहे। 11वीं और 12वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने उत्तर भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने और जहां अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया वहीं अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं जैसे खयाल, गज़ल आदि और भारतीय संगीत का कई नये वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि। भारतीय संगीत के आधुनिक मनीषी स्थापित कर चुके हैं कि वैदिक काल से आरम्भ हुई भारतीय वाद्यों की यात्रा क्रमश: एक के बाद दूसरी विशेषता से इन यंत्रों को सँवारती गयी। एक-तंत्री वीणा ही त्रितंत्री बनी और सारिका युक्त होकर मध्य-काल के पूर्व किन्नरी वीणा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मध्यकाल में यह यंत्र जंत्र कहलाने लगा जो बंगाल के कारीगरों द्वारा आज भी इस नाम से पुकारा जाता है। भारत में पहुँचे मुस्लिम संगीतकार तीन तार वाली वीणा को सह (तीन) + तार = सहतार या सितार कहने लगे। इसी प्रकार सप्त तंत्री अथवा चित्रा-वीणा, सरोद कहलाने लगी। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज्यादा महसूस किया गया। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के मुस्लिम प्रभाव से अछूता रहा। बाद में सूफी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नये वाद्य प्रचलन में आए पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। आम जनता में लोकप्रिय आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारतीय शास्त्रीय संगीत पद्धतियां- राग का परिचय - 1) इस राग को राग कल्याण के नाम से भी जाना जाता है। इस राग की उत्पत्ति कल्याण थाट से होती है अत: इसे आश्रय राग भी कहा जाता है (जब किसी राग की उत्पत्ति उसी नाम के थाट से हो)। मुगल शासन काल के दौरान, मुसलमानों ने इस राग को राग यमन अथवा राग इमन कहना शुरु किया। 2) इस राग की विशेषता है कि इसमें तीव्र मध्यम का प्रयोग किया जाता है। बाक़ी सभी स्वर शुद्ध लगते हैं। 3) इस राग को रात्रि के प्रथम प्रहर या संध्या समय गाया-बजाया जाता है। इसके आरोह और अवरोह में सभी स्वर प्रयुक्त होते हैं, अत: इसकी जाति हुई संपूर्ण-संपूर्ण (परिभाषा देखें)। 4) वादी स्वर है- ग संवादी - नि आरोह- ऩि रे ग, म॑ प, ध नि सां । अवरोह- सां नि ध प, म॑ ग रे सा । पकड़- ऩि रे ग रे, प रे, ऩि रे सा । विशेषतायें- १) यमन और कल्याण भले ही एक राग हों मगर यमन और कल्याण दोनों के नाम को मिला देने से एक और राग की उत्पत्ति होती है जिसे राग यमन-कल्याण कहते हैं जिसमें दोनों मध्यम का प्रयोग होता है। २) यमन को मंद्र सप्तक के नि से गाने-बजाने का चलन है। ऩि रे ग, म॑ ध नि सां ३) इस राग में ऩि रे और प रे का प्रयोग बार बार किया जाता है। ४) इस राग को गंभीर प्रकृति का राग माना गया है। ५) इस राग को तीनों सप्तकों में गाया-बजाया जाता है। कई राग सिर्फ़ मन्द्र, मध्य या तार सप्तक मंग ज़्यादा गाये बजाये जाते हैं, जैसे राग सोहनी तार सप्तक में ज़्यादा खुलता है।
इस राग में कई मशहूर फ़िल्मी गाने भी गाये गये हैं। सरस्वती चंद्र से- चंदन सा बदन, चंचल चितवन राम लखन से- बड़ा दुख दीन्हा मेरे लखन ने चितचोर से- जब दीप जले आना भीगी रात से- दिल जो न कह सका वो ही राज़े दिल ....आदि। राग भूपाली राग परिचय-- थाट- कल्याण वर्जित स्वर- म, नि जाति- औडव-औडव वादी- ग संवादी-ध गायन समय- रात्रि का प्रथम प्रहर इस राग का चलन मुख्यत: मन्द्र और मध्य सप्तक के प्रतह्म हिस्से में होती है (पूर्वांग प्रधान राग)। इस राग में ठुमरी नहीं गायी जाती मगर, बड़ा खयाल, छोटा खयाल, तराना आदि गाया जाता है। कर्नाटक संगीत में इसे मोहन राग कहते हैं। आरोह- सा, रे, ग, प, ध, सा। अवरोह- सां, ध, प, ग, रे, सा। राग मुल्ताली
• नीचे आप जहाँ भी ~ चिन्ह देखें, ये मीड़ दर्शाने के लिये है। • और ( ) खटका दिखाने के लिये। अर्थात अगर (सा) दिखाया गया है तो इसे 'रे सा ऩि सा' गाया जायेगा। राग परिचय: थाठ: तोड़ी वादी: प संवादी: सा जाति: औडव-संपूर्ण आरोह में रे और ध वर्जित स्वर हैं गायन समय: दिन का चौथा प्रहर स्वर:- कोमल रे, कोमल ग, तीव्र म का प्रयोग, बाकी सब स्वर शुद्ध आरोह: ऩि सा म॑~ग॒ म॑~प, नि सां । अवरोह: सां नि ध॒ प, म॑ ग॒ म॑ ग॒, रे॒ सा। पकड़: ऩि सा म॑~ग॒ ऽ म॑ प, म॑ ग॒ म॑ ऽ ग॒ रे॒ सा। कुछ विशेषतायें- तोड़ी थाठ से होते हुये भी ये राग तोड़ी की प्रकृति का तो है मगर तोड़ी से बहुत भिन्न है। इसे गाते बजाते वक्त कुछ विशेष बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है। १) बहुधा इस राग में आलाप तान मन्द्र निषाद से प्रारम्भ करते हैं। ऩि सा ग॒~म॑ प... २) कोमल ग का प्रयोग तीव्र म के साथ मीड़ में होता है और ये इस राग की खा़स बात है। इसी तरह, कोमल रे को गाते समय कोमल ग का कण लगता है। इस तरह से कोमल रे और कोमल ग अपने स्थान ने थोड़े चढ़े हुये होते हैं। तीव्र म भी प के करीब है।कर्नाटक संगीत
कर्नाटक संगीत या संस्कृत में कर्णाटक सङ्गीतं भारत के शास्त्रीय संगीत की दक्षिण भारतीय शैली का नाम है, जो उत्तरी भारत की शैली हिन्दुस्तानी संगीत से काफी अलग है।
कर्नाटक संगीत ज्यादातर भक्ति संगीत के रूप में होता है और ज्यादातर रचनाएँ हिन्दू देवी देवताओं को संबोधित होता है। इसके अलावा कुछ हिस्सा प्रेम और अन्य सामाजिक मुद्दों को भी समर्पित होता है।
जैसा कि आमतौर पर भारतीय संगीत मे होता है, कर्नाटक संगीत के भी दो मुख्य तत्व राग और ताल होता है।
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