झारिया समाज भारत के मूल निवासी समाजो में से एक है भारत मे स्थाई निवासी यहाँ का आदिवासी समुदाय है उसी के साथ साथ हम ओर हमारा समाज भी समिलित है हमारे पूर्वज पहले जंगलों में निवास करते थे फिर धीरे धीरे हमारे द्वारा बस्तियों का निर्माण किया जाने लगा हमारे संबंध भारत के सभी समुदायों के लोगों के साथ बहुत अच्छे थे झारिया समाज के लोगों पर सभी समाज के लोग बहुत ही विश्वास करते थे झारिया समाज का हर व्यक्ति बहुत ही बफादार ओर मिलनसार होने के लिए जाने जाना लगा था धीरे धीरे अन्य समाज झारिया समाज की कर्तव्य निष्ठा से प्रभावित होकर झारिया समाज के लोगो को देखरेख का कार्य सोपने लगे और इनके कार्यो से बहुत ही प्रभावित हुआ करते थे क्योंकि यह बहुत ही ईमानदारी और सहजता के साथ अपने कर्यो को निभाते थे शिक्षा और व्यवस्थाओ के अभाव में धीरे धीरे झारिया समाज के लोग चौकीदारी (कूटवारी) का कार्य करने लगे अन्य समाज के लोगों से अच्छे संबंध होने के कारण हम जिस समाज के साथ रहते उसी के कुछ गुण(काम) सीख लेते इस प्रकार हम किसी भी एक कार्य पर आश्रित नही रहे । झारिया समाज ने हमेशा देश भक्ति का परिचय दिया एवं देश हित मे अव्वल रहा जब भारत में मुगलों काल चल रहा था और जबरन धर्म परिवर्तन का दौर चल रहा था तब भी झारिया समाज के पूर्वजों ने छोटे से छोटा कार्य करने को तैयार थे परंतु उन्होंने कभी भी अपने धर्म कार्य और नीति से समझौता नहीं किया। आज वर्तमान में झारखंड में झरिया नामक जिला हमारे समाज की पहचान है ।आज झारिया समाज के लोग दस्तावेजो में मेहरा जाति का प्रयोग कर रहे हैं शासन के द्वारा झारिया समाज को अनुसूचित जाति की सूची में मेहरा जाति में समिलित किया गया है इस कारण से झारिया उपजाति बनकर रह गई हैं । आम तौर पर हम झारिया समाज के लोग ‘झारिया’ (शब्द) को एक सरनेम या उपनाम की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। हम में से विरले ही इसे अपनी जाति के बतौर प्रयोग में लाते होंगे। हम में से लगभग सभी अपनी जाति ‘मेहरा’ लिखते रहे हैं क्यों कि झारिया एक जाति के बतौर अभी तक सरकारी दस्तावेज़ों में दर्ज़ नहीं हुई थी। यह तो कुछ ही वर्षों पहले हम सभी को पता चला कि सरकार द्वारा ‘झारिया’ भी सरकारी दस्तावेज़ों में एक जाति के बतौर मान्यता प्राप्त कर चुकी है। आजतक हमें यह पता ही नहीं था कि झारिया स्वयं ही एक जाति का नाम है। मुझे अपने बचपन के समय की बातें याद हैं जब हमारे बुज़ुर्ग अपनी जाति ‘झारिया’ बताया करते थे। उन दिनों भी यह सुनने में अजीब सा लगता था कि ये कैसी जाति है? क्योंकि इस जाति के साथ कोई व्यवसाय तो जुड़ा नहीं है; जैसे कि लकड़ी का काम करने वाला बढई कहलाता है और लोहे का काम करने वाला लुहार। झारिया जाति का व्यवसाय क्या है? यह किसी को पता नहीं था। झारिया समाज के लोग मुख्यतः खेती करते रहे हैं या खेती से जुड़े काम करने की मज़दूरी। इसके अलावा कई झारिया लोग भिन्न- भिन्न व्यवसाय जैसे बढ़ई का काम, दर्ज़ी का काम या जो भी जीवन यापन के लिये मिला आम श्रमिक की भाँति करने लगे। पुराने समय का ऐसा भी विवरण मिलता है कि झारिया लोग कपड़े की कताई-बुनाई का काम भी भी किया करते थे। दस्तावेज़ों के अनुसार बुनकर का काम करने वाली जातियाँ कोरी, कोली, जुलाहा, कतिया, बलाही, गण्डा, कोरी, महार, माला आदि हैं। कई झारिया तो अपने आप को बुनकर ही कहने लगे थे। ऐसे कई परिवार भी हैं जिन्होंने कताई बुनाई के कारोबार के आधार पर कबीरपंथी संप्रदाय स्वीकार कर लिया था। 17वीं शताब्दीके आस-पास मुगलों, गौंड और मराठा राजाओं के बीच होते रहे अनवरत युद्धों के दौरान ‘झारिया’ जाति को ‘महार’ जाति के साथ मिलाकर उसे समाज की दलित श्रेणी में शुमार कर दिया होगा। इसके फ़लस्वरूप झारिया अछूतों में गिने जाने लगे। उस काल के बाद झारिया समाज ने 300-400 साल तक समाज के निचले तबके के दलितों का जीवन जिया। आज 21वीं सदी में भी समाज का रवैया झारिया जाति के प्रति नहीं बदला है। उच्च शिक्षा और ऊँची आय प्राप्त करने के कारण शहरी क्षेत्र में तो इस समाज के लोगों की सामाजिक स्तिथि सुधर गई है परंतु ग्रामीण इलाकों में उनके प्रति बाकी हिंदुओं का रवैया वही पुराना छुआ-छूत पूर्ण है। । झारिया समाज की उत्पत्ति और उसका इतिहास जानने की प्रक्रिया के दौरान मुझे सबसे महत्वपूर्ण यह बात पता चली कि ‘झारिया’ स्वयं ही एक जाति का नाम है जिसका ज़िक्र सैकड़ों साल पहले के इतिहास में भी मिलता है। झारिया शब्द की उत्पत्ति झरिया या झाड़ी से हुई मानी जाती है। इसे झाड़ या झार से भी जोड़ा जाता है जो पेड़ों और झाड़ियों से भरे झारखण्ड के बियाबान जंगलों वाले क्षेत्र से इसका नाता जोड़ता है। हमारे समाज में यह सोच और विश्वास अनंतकाल से चले आ रहे हैं कि झारिया या झरिया समाज की जड़ें झारखण्ड में ही जमी हुई हैं। मण्डला क्षेत्र में पुराने समय से ही झारिया को झरिया कहा जाता रहा है। मुझे याद है कि हमारे सयाने अपने पूर्वजों के पैत्रिक गाँव का नाम झारखण्ड बताया करते थे। लगता है कि पिछले सैकड़ों सालों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस यथार्थ की जानकारी लोग अपनी-अपनी सन्तानों को देते रहे हैं। यही कारण है कि अपने अध्ययन के दौरान मुझे इस तथ्य के प्रमाण दस्तावेज़ों में प्राप्त हुए हैं कि झारिया जाति की उत्पत्ति सैकड़ों साल पहले लगभग 16वीं – 17वीं शताब्दी में बियाबान जंगलों से घिरे झारखण्ड क्षेत्र में हुई थी। वर्तमान केंद्रीय और राज्य सरकारों ने झारिया समाज से बिना मशविरा किये उनसे पिछले 60 वर्षों से अनवरत मिल रही आरक्षण की सुविधाएं एकाएक छीन लीं। यह मनवाधिकार का स्पष्ट उल्लन्घन है। इन सरकारी आदेशों के फ़लस्वरूप आरक्षण को लेकर झारिया समाज के लोगों को गहरा सदमा लगा क्योंकि उनसे आरक्षण की सुविधा छीन ली गई है। इस समस्या से निपटने के लिए झारिया जाति केअधिकतर लोगों नें अपने नाम के आगे से ‘झारिया’ सरनेम ही हटाना आरंभ कर दिया और दस्तावेज़ों और कागज़ातों पर अपनी जाति और पहचान ‘मेहरा’ ही लिखने लगे। यह तो झारिया जाति के लोगों का भारतीय नागरिक होने के नाते बुनियादी अधिकार है कि वे स्वयं यह निर्णय करें कि वे अपने नाम के साथ झारिया लिखनाचाहते हैं या मेहरा। परंतु केंद्रीय शासन और मध्यप्रदेश सरकार का यह अचानक लिया गया एकतरफ़ा फ़ैसला कानून और मनवाधिकार के उसूलों के खिलाफ़ है। अगर झारिया और मेहरा जातियाँ अलग-अलग ही थीं तो पहले उन्हें अनुसूचित जातियों में शामिल ही क्यों किया गया और इन्हें शामिल करने के पीछे क्या कारण थे। स्पष्ट रूप से इसका कारण यही था कि सदियों से झारिया या झरिया समाज को मेहरा जाति के साथ ही जोड़कर देखा जाता रहा है, क्योंकि झारिया लोग मेहरा जाति के सभी व्यवसाय सैकड़ों साल से करते आ रहे हैं। परिणाम स्वरूप अन्य हिंदू समाजों के बीच झारिया और मेहरा जाति के लोगों को एक ही तरह से नीची नज़र से देखा जाता रहा है। इस तत्थ के बावजूद, सरकार द्वारा एकाएक झारिया जाति को आरक्षित श्रेणी से हटाने का फ़ैसला क्यों, कैसे और किन लोगों की पहल पर लिया गया। आज सरकारों द्वारा मुसलमान और ईसाई लोगों को भी अनुसूचित जाति के आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है जिनके धर्म में जाति व्यवस्था है ही नहीं। पुराने ज़माने में दलित हिंदुओं ने जात-पाँत की अमानवीय परंपरा से बचने के लिए ही अपना धर्म छोड़ कर ईसाई और मुसलमान धर्म स्वीकर किए थे। इस प्रकार से तो ईसाई और मुसलमान दलित फ़यदे में ही रहे। पहले तो धर्म परिवर्तन कर छुआछूत से बच गए और आज नेताओं की मेहरबानी से अछूतों को मिलने वाली सुविधाएँ भी हथिया लीं। दूसरी ओर झारिया समाज की दशा देखिए जिसने पिछ्ले 300 वर्षों से सामाजिक उपेक्षा और छुआछूत का अपपमान पूर्ण जीवन जिया और आज एकएक सरकार ने कह दिया कि झारिया जाति तो अछूत है ही नहीं और इसी बहाने उनसे उनकी आरक्षण की सुविधाएँ निर्दयता से छीन लीं गई। मेहरा जाति – मेहरगढ़ (मेहर सभ्यता) पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण एक स्थान है जहाँ नवपाषाण युग (७००० ईसा-पूर्व से ३३००ईसा-पूर्व) के बहुत से अवशेष मिले हैं। यह स्थान वर्तमान बलूचिस्तान (पाकिस्तान) के कच्ची मैदानी क्षेत्र में है। यह स्थान विश्व के उन स्थानों में से एक है जहाँ प्राचीनतम कृषि एवं पशुपालन से सम्बन्धित साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों से पता चलता है कि यहाँ के लोग गेहूँ एवं जौ की खेती करते थे तथा भेड़, बकरी एवं अन्य जानवर पालते थे। मेहरगढ़ वर्तमान में बोलन नदी के किनारे स्थित है। भारतीय इतिहास में इस स्थल का महत्व अनेक कारणों से है। यह स्थल भारतीय उप महाद्वीप को भी गेंहूँ-जौ के मूल कृषि वाले क्षेत्र में शामिल कर देता है और नवपाषण युग के भारतीय काल निर्धारण को विश्व के नवपाषण काल निर्धारण के अधिक समीप ले आता है। इसके अतिरिक्त इस स्थल से सिंधु सभ्यता के विकास और उत्पत्ति पर प्रकाश पड़ता है। यह स्थल हड़प्पा सभ्यता से पूर्व का ऐसा स्थल है जहां से हड़प्पा जैसे ईंटों के बने घर मिले हैं और लगभग 6500 वर्तमान पूर्व तक मेहरगढ़ वासी हड़प्पा जैसे औज़ार एवं बर्तन भी बनाने लगे थे। निश्चित तौर पर इस पूरे क्षेत्र में ऐसे और भी स्थल होंगे जिनकी यदि खुदाई की जाए तो हड़प्पा सभ्यता के संबंध में नए तथ्य मिल सकते हैं। मेहरगढ़ से प्राप्त एक औज़ार ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है। यह एक ड्रिल है जो बहुत कुछ आधुनिक दाँत चिकित्सकों की ड्रिल से मिलती जुलती है। इस ड्रिल के प्रयोग के साक्ष्य भी स्थल से प्राप्त दाँतों से मिले हैं। यह ड्रिल तांबे की है और इस नयी धातु को ले कर आरंभिक मानव की उत्सुकता के कारण इस पर अनेक प्रयोग उस समय किए गए होंगे ऐसा इस ड्रिल के आविष्कार से प्रतीत होता है। एक अन्य महत्वपूर्ण वस्तु है सान पत्थर जो धातु के धारदार औज़ार और हथियार बनाने के काम आता था मेहरगढ़ से प्राप्त होने वाली अन्य वस्तुओं में बुनाई की टोकरियाँ, औज़ार एवं मनके हैं जो बड़ी मात्र में मिले हैं। इनमें से अनेक मनके अन्य सभ्यताओं के भी लगते हैं जो या तो व्यापार अथवा प्रवास के दौरान लाये गए होंगे। बाद के स्तरों से मिट्टी के बर्तन, तांबे के औज़ार, हथियार और समाधियाँ भी मिलीं हैं। इन समाधियों में मानव शवाधान के साथ ही वस्तुएँ भी हैं जो इस बात का संकेत हैं कि मेहरगढ़ वासी धर्म के आरंभिक स्वरूप से परिचित थे। इस स्थल की खुदाई १९७७ ई० मे हुई थी। यदि इसकी समुचित खुदाई की जाए तो यह स्थल इस क्षेत्र में मानव सभ्यता के विकास पर नए तथ्य उद्घाटित कर सकता है। अभी तक की इस खुदाई में यहाँ से नवपाषण काल से लेकर कांस्य युग तक के प्रमाण मिलते है जो कुल 8 पुरातात्विक स्तरों में बिखरे हैं। यह 8 स्तर हमें लगभग 5000 वर्षों के इतिहास की जानकारी देते हैं। इनमें सबसे पुराना स्तर जो सबसे नीचे है नवपाषण काल का है और आज से लगभग 9000 वर्ष पूर्व का है वहीं सबसे नया स्तर कांस्य युग का है और तकरीबन 4000 वर्ष पूर्व का है। मेहरगढ़ और इस जैसे अन्य स्थल हमें मानव प्रवास के उस अध्याय को समझने की बेहतर अंतर्दृष्टि दे सकते है जो लाखों वर्षों पूर्व दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ था और विभिन्न शाखाओं में बंट कर यूरोप, भारत और दक्षिण- पूर्व एशिया पहुंचा। 16वीं – 17वीं सदीके आस-पासगौंड़ो, मुगलों और मराठाओं के बीच अनवरत युद्धों के कारण आम प्रजा के पलायनों के साथ प्रवासित होने पर जातियों को किस प्रकार राजाओं, जागीरदारों, मालगुज़ारों और अन्य ग्राम-प्रधानों द्वारा बदल दिया जाता था इसका उदाहरण भिन्न स्थानों में झारिया समाज के भिन्न स्वरूपों को जानकर मिलता है। अध्ययनों से पता चलता है कि मुगलों और मराठा हुकूमतों के दौरान झारिया समाज के युद्धबंदियों और विस्थापितों को राजाओं और ग्रामप्रधानों ने अपने-अपने राज्यों और गाँवों में निचले दर्ज़े के काम करवाने के लिए अपनी मन-मर्ज़ी से जिस जाति में चाहा उस जाति में मिला कर बँधुआ मज़दूर बना दिया था। यही कारण है कि झरिया (जाति) अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग जातियों की उपजाति के रूप में पाई जाती है। यह जानकर विश्वास ही नहीं होता कि जहाँ मध्यप्रदेश में झारिया या झरिया जाति को महार और मेहरा से जोड़ा कर देखा जाता है, वहीं,दक्षिण-पष्चिमी राज्यों में उन्हें राजपूत, यादव, तेली, चौरसिया आदि जातियों से जोड़ा दिया गया है। यहाँ तक कि पश्चिमी उड़ीसा में तो झारिया समाज के लोग उत्कल ब्राह्मणों की श्रेणी में शुमार होते हैं। आध्ययन से पता चलता है कि 16वीं- 17वीं सदी में मराठा राजाओं की हुकूमत के दौरान झारिया जाति को मेहरा या महार जाति से मिलाने का हुक्म जारी किया गया होगा।इसके पहले गोँडवाना और गढ़ा मण्डला क्षेत्र में महार या मेहरा जाति का उल्लेख नहीं मिलता। महार या मेहरा जातियों का ज़िक्र मराठा राजाओं द्वारा मध्या-भारत में हुकूमत कायम करने के बाद ही मिलता है। महार या मेहरा जातियाँ इस क्षेत्र में महाराष्ट से मराठा सेनाओं के साथ ही लड़ाके सिपाहियों या सेनाओं में श्रमिकों के रूप में आई होंगी। जो आगे जाकर यहीं बस गईं और जिनके साथ झारिया समज को मिला दिया गया। राजाओं, मालगुज़ार्लों, जागीरदारों और अन्य ग्राम प्रमुखों द्वारा झारिया समाज के लोगों को महार या मेहरा जाति से मिलाने कापरिणाम यह हुआ कि झारिया जाति के लोगों के लिए, महार या मेहरा जाति के सारे कारोबार करने के लिए भी बाध्यहोना पड़ा।झारिया समाज को कताई, बुनाई, कोटवारी जैसे रोज़गार करने के सख्त आदेश जारी कर दिए गए होंगेजिसके परिणाम स्वरूप महार, बलाही, कोरी, कतिया, चड़ार खँगार, दहैत आदि जातियों की तरह ही, झारिया जाति के लोगों को गाँव में अलग अछूतों के मुहल्लों मे रहने के लिए मजबूर कर दियागया होगा। परिणाम स्वरूप, अंततः एक नई जाति “झारिया (मेहरा)” का उदय हुआ जिसका शुमार निचले वर्गों में हिने लगा। गाँव काचौकीदारयानी ‘कोटवार’ एक अन्य व्यवसाय या एक सरकारी नौकरी का पद था, जिसे झारिया (मेहरा) समाज के बनने परउनके साथ जोड़ दिया गया होगा। 16वीं – 17वीं शताब्दी में मुगल और मराठा राजाओं के राज्यों में झारिया समाज के लोग कोटवारी करने लगे होंगे। यह व्यवसाय आगे जाकर समाज के साथ कुछ ऐसा जुड़ा कि कई लोग तो इसे अपनी जाति ही लिखने लगे। इलाहबाद के पण्डों की बहियों मे कोटवार जाति का अलग Pपृष्ठ पाया जाता है। एक सरकारी पद को जाति कैसे बना दिया गया? यह धर्मग्रंथों के आधार पर तो नहीं हो सकता। बल्कि यह निहित स्वार्थों की कारगुज़ारी अधिक नज़र आती हैया फ़िर झारिया समाज में फ़ैली अज्ञानता का नतीजा हो सकता है। सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार कोटवारी का काम कुछ विशेष जातियों के लिए आरक्षित रहा है। पुरातन काल से गाँव कोटवार का काम करने वाली जातियाँ हैं खँगार, चड़ार, दहैत, महार आदि। गौंड़, मुगल और मराठा राजाओं के बीच सदियों तक चले अनवरत युद्धों के दौरान श्रमिक श्रेणी की प्रजा झुंडों में हारने वाले राज्यों से पलायन करकेदूर-दराज़ के राज्यों में शांतिपूर्ण जीवन की तलाश में भटकती रहती थी। ये बेबस लोग सामजिक उत्पीड़न और जाति-परिवर्तन के शिकार हुआ करते थे। नए स्थानों में वहाँ के मालगुज़ार या ग्राम-प्रमुख जिस काम पर भी उन्हें लगा देते थे, उसी काम से जुड़ी हुई जाति भी उनके सर मढ़ दी जाती थी। इसी प्रकार हारने वाली सैनाओं के युद्धबंदियोंकी भी दशा दुश्मनों के हाथ पड़ने पर यही हुआ करती थी। झारिया समाज के लोगों को भी इन्हीं समाजिक परिवर्तनों से गुज़रना पड़ा था। गढ़ा मण्डला क्षेत्र से बाहर जाकर बसने वाले झरिया समाज के लोग अपनी जाति के समकक्ष या उससे ऊपर-नीचे की जातियों में मिला लिये गए। जबकि गोण्डवाना या गढ़ा-मण्डला क्षेत्र में पीछे बच गये झारिया समाज के लोगों को आक्रामक मुगल और मराठा राजाओं और उनके नए मालगुज़ारों और ज़मीनदारों द्वारा दलित श्रेणी में डाल दिया गया।